terça-feira, 17 de fevereiro de 2009

Além

Muito além do que somos capazes de sonhar
Ele é poderoso em nós
De o realizar.

Além dos sonhos
tão abundante como  a vida
Mais exuberante que a inenarrável glória
Mais espetacular que o triunfo.
Mais intenso que o desejo
Mais completo que o anseio
Mais perfeito que o sonho
Mais consolador que minha esperança
Mais forte que a vingança
Maior que o livramento
Melhor que a cura

Eu não sou capaz
Por definição
De sonhar mais alto
Que o poder que ele possui
De  o realizar.
Eu não possuo os recursos de imaginação
Que me capacitem a solicitar
Uma resposta mais original
Que aquela que ele pode me conceder.

Então que eu peça com TODA a ousadia
Com TODA a minha imaginação
Com TODA minha fé
Com TODA minha esperança
Com TODO anseio, desejo, recursos, vontade e o que mais houver

Sabendo que haverei de receber
Algo que não seria capaz
De imaginar.


Welington

domingo, 15 de fevereiro de 2009

Romantico e Nerd.

Se a cada vez que eu lembrasse de você uma estrela se apagasse
o céu seria escuro.
Sabia que se o amor por alguém atinge certa massa crítica,
há uma teoria de campo unificado que diz que a energia gerada
cria um buraco negro do outro lado do universo?
Eu me sinto responsável pela destruição de Kripton.

Meu amor por você é um catalisador que se insurgiu contra sua essencia
e almeja se tornar a mesma substancia de que você é feita.

Se você dissesse -sim! até os fotons levariam mais tempo para cruzar a distancia
entre nossos olhares, que a próxima batida de meu coração...

Se uma força imensurável se encontrasse com um corpo inamovível
ocorreria a mesma singularidade
que acontece quando
tento parar de pensar
em você...


só que numa escala bem menor...

sexta-feira, 13 de fevereiro de 2009

E Cristo amou a família

Meu nome é Jesus.
Nome que em parte ele revela aquilo que sou.
Não nasci exatamente como nasceram os demais homens.
Mas sou tudo que é humano, e represento a humanidade
como antes de mim nenhum outro ser humano já a representou.
Mas não sou só homem.
E tudo que há, tudo que haverá,
E tudo que foi,
E todo ser humano
Pertencem a mim.
Eu estava presente em Deus
Quando tudo veio a existir.
Nada existe sem que
Disso eu participasse.
Eu sou anterior a tudo e
tudo só faz sentido
comigo.
Mesmo a dor, a sombra,
as trevas e mesmo a morte.
Eu provei da morte
Porém,
saibam,
a morte provou de mim.

a morte provou de mim

A morte se encontrou comigo.
E eu a feri.
Na minha ressurreição
Eu transformei o mundo espiritual
Eu mudei a realidade
E chamei a existencia
a um novo mundo
Um novo céu.
Uma nova terra.
Quem crer em mim
Receberá poder
Para vencer
E seus olhos se abrirão
E seu coração se tornará

Como de uma criança

Como de uma criança

Mi nombre es Jesús.
Nombre que, en parte lo que revela lo que soy.
Yo no nací así como nacieron los otros hombres.
Pero yo soy todo lo que es humano, y que representan a la humanidad
antes de mí, como ningún otro ser humano ya representadas.
Pero yo soy el hombre.
Y todo lo que hay, todo lo que hay,
Y todo lo que se
Y todos los seres humanos
Ellos pertenecen a mí.
Yo estuve presente en Dios
Cuando llegó a ser.
Nada existe sin
También participé.
Soy ante todo y
que sólo tiene sentido
me.
Incluso el dolor, la sombra,
la oscuridad e incluso la muerte.
Me gustó la muerte
Pero
saber,
resultado la muerte de mí.
resultado la muerte de mí
La muerte me conoció.
Y me duele.
En mi resurrección
Me convertí en el mundo espiritual
He cambiado la realidad
Llamé a la existencia
un mundo nuevo
Un nuevo cielo.
Una nueva tierra.
Quien cree en mí
Recibir poder
Para superar
Y sus ojos se abrirán
Y el corazón se
Como un niño
Como un niño

اسمي يسوع.
الاسم الذي جزئيا أنه يكشف ما أنا عليه.
أنا لم يولد تماما كما في غيره من الرجال ولدوا.
ولكن أنا كل ما هو إنساني ، وأنا أمثل الإنسانية
قبلي وليس إنسان آخر تمثل بالفعل.
ولكن أنا رجل.
وكل ما هنالك ، كل ما هناك ،
وعلى كل ما كان
ولكل إنسان
انهم ينتمون الى لي.
كنت حاضرا في الله
عندما جاء ليكون.
لا شيء من دون وجود
وشاركت أيضا.
أنا قبل كل شيء ، و
إلا أنه من المنطقي
أنا.
حتى الألم ، والظل ،
الظلام وحتى الموت.
لقد ذاقت الموت
لكن
يعرف ،
ثبت وفاة لي.
ثبت وفاة لي
الموت اجتمع لي.
وأنا يصب بأذى.
في بلدي القيامة
لقد أصبح العالم الروحي
لقد غيرت واقع
دعوت إلى وجود
عالم جديد
سماء جديدة.
والأرض الجديدة.
كل من يؤمن لي
تلقي السلطة
للتغلب على
وعينيك سيفتتح
وسوف يصبح قلبك
كطفل
كطفل

Mein Name ist Jesus.
Name, die teilweise offenbart, wer ich bin.
Ich war nicht geboren, genauso wie die anderen Menschen geboren wurden.
Aber ich bin alles, was menschlich ist, und ich vertrete die Menschlichkeit
vor mir, wie kein anderer Mensch bereits vertreten.
Aber ich bin Mensch.
Und alles, alles,
Und alles, was
Und jeder Mensch
Sie gehören zu mir.
Ich war in Gottes Gegenwart
Wenn es kam zu sein.
Nichts existiert ohne
Ich nahm auch an.
Ich bin vor allem und
Es macht nur Sinn,
mich.
Selbst der Schmerz, der Schatten,
der Dunkelheit und sogar zum Tod führen.
Ich schmeckte den Tod
Aber
wissen,
erwies sich der Tod von mir.
erwies sich der Tod von mir
Der Tod erfüllt mich.
Und ich verletzt.
In meiner Auferstehung
Ich wurde in die geistige Welt
Ich habe die Realität
Ich rief die Existenz
eine neue Welt
Ein neuer Himmel.
Eine neue Erde.
Wer an mich glaubt
Empfangsleistung
Zur Überwindung
Und eure Augen aufgetan werden
Und dein Herz sein wird
Als Kind
Als Kind

我的名字是耶穌。
名稱,這部分揭示了我是誰。
我不是生來就與其他人誕生了。
但我是人的一切,我代表人類
在我之前,因為沒有其他人已經代表。
但是我的人。
而且都在那裡,都在那兒,
和所有的
和每個人
他們屬於我。
我現在對上帝的
當它的出現。
沒有不存在
我也參加了會議。
我以前一切,
這種做法是明智
我。
即使是痛苦的陰影,
黑暗,甚至死亡。
我嘗死亡
但是
知道,
證明了我的死亡。
證明了我的死亡
死亡會見了我。
我受傷。
在我的復活
我成了精神世界
我改變了現實
我打電話的存在
一個新的世界
一個新的天堂。
一顆新的地球。
誰相信我
接收功率
為了克服
和你的眼睛將打開
和你的心將成為
作為一個孩子
作為一個孩子

मेरा नाम यीशु है.
नाम है जो आंशिक रूप से यह पता चलता है कि मैं कौन हूँ.
मैं पैदा नहीं हुआ तो बस के रूप में अन्य लोगों पैदा हुए थे.
लेकिन मैं कर रहा हूँ वह सब मानव है, और मैं मानवता का प्रतिनिधित्व
मुझे पहले की तरह कोई मानव पहले ही प्रतिनिधित्व किया जा रहा है.
लेकिन मैं आदमी हूँ.
और सब कुछ, सब वहाँ,
और यह सब किया गया
और हर मानव
वे मेरे पास हैं.
मैं भगवान में उपस्थित थे
यह होगा जब आया था.
कुछ भी नहीं मौजूद है बिना
मैं भी भाग लिया.
मैं और सब कुछ पहले कर रहा हूँ
इसे ही समझ में आता है
मुझे.
यहां तक कि दर्द, छाया,
अंधेरे और यहां तक कि मृत्यु.
मैं मौत का स्वाद
परन्तु
जानना,
मेरी मौत साबित हुआ.
मेरी मौत साबित
मुझे मौत से मुलाकात की.
और मुझे चोट लगी है.
अपने जी उठने में
मैं आध्यात्मिक दुनिया बन गए
मैं सच्चाई परिवर्तित
मैंने फोन किया अस्तित्व
एक नई दुनिया
एक नया आकाश.
एक नई पृथ्वी.
मुझ में जो भी मानना है कि
प्राप्त शक्ति
पर काबू पाने के लिए
और अपनी आँखें खोल दिया जाएगा
और अपने दिल बन जाएगा
एक बच्चे के रूप में
एक बच्चे के रूप में

Is é mo ainm Íosa.
Ainm go páirteach nochtann sé a mé.
Ní raibh mé ag rugadh díreach mar a rugadh ar an bhfear eile.
Ach tá mé ag gach duine sin, agus is ionannas mé daonnachta
roimh dom nach bhfuil aon duine eile a bhfuil ionadaíocht cheana féin.
Ach mé fear.
Agus gach ann, gach ann,
Agus gach a raibh
Agus gach duine a
Mbaineann siad dom.
Bhí mé i láthair Dé
Nuair a tháinig sé chun bheith.
Ní dhéanfaidh aon ní ann gan
Mé páirt freisin.
Tá mé roimh gach rud agus
déanann sé ciall amháin
mise.
Fiú an pian, an scáth,
an dorchadais agus fiú bás.
I tasted báis
Ach
a fhios a bheith ag,
chruthaigh an bás mé.
chruthaigh an bás orm
Bás bhuail me.
Agus mé Gortaítear.
I mo resurrection
Tháinig mé ar an saol spioradálta
D'athraigh mé an réaltacht
D'iarr mé a bheith ann
ar domhan nua
A spéir nua.
A talún nua.
Whoever Creideann i mo
Faigh an chumhacht
A shárú
Agus beidh do chuid súl a oscailt
Agus beidh do chroí bheith
Mar leanbh
Mar leanbh

Το όνομά μου είναι ο Ιησούς.
Όνομα που εν μέρει αποκαλύπτει ποιος είμαι.
Δεν γεννήθηκα ακριβώς όπως γεννήθηκαν οι άλλοι άνδρες.
Είμαι, όμως, ότι όλα είναι ανθρώπινα, και εκπροσωπώ την ανθρωπότητα
πριν από εμένα, όπως δεν άλλες ανθρώπου εκπροσωπούνται ήδη.
Αλλά είμαι άνθρωπος.
Και όλα εκεί, όλα εκεί,
Και όλα αυτά ήταν
Και κάθε ανθρώπινη
Ανήκουν σε μένα.
Ήμουν παρών στο Θεό
Όταν ήρθε να είναι.
Τίποτα δεν υπάρχει δεν
Επίσης συμμετείχε.
Είμαι πάντα πριν και
έχει νόημα μόνον
εμένα.
Ακόμη και ο πόνος, η σκιά,
το σκοτάδι, ακόμα και θάνατο.
Δοκίμασα θανάτου
Αλλά
γνωρίζω,
αποδείχθηκε ο θάνατος του εγώ.
αποδείχθηκε το θάνατο μου
Θάνατος μου πληρούνται.
Κι εγώ κακό.
Στην ανάσταση μου
Έγινα τον πνευματικό κόσμο
Έχω αλλάξει την πραγματικότητα
Κάλεσα την ύπαρξη
ένα νέο κόσμο
Ένα νέο παράδεισο.
Μια νέα γη.
Όποιος πιστεύει σε μένα
Λήψη ισχύος
Για να ξεπεραστούν
Και τα μάτια σας θα ανοίξει
Και η καρδιά σας θα γίνει
Σαν παιδί
Σαν παιδί

 Меня зовут Иисус.
Имя, которое частично он раскрывает, кто я.
Я не был рожден как родились другие мужчины.
Но я все, что человек, и я представляю человечества
Передо мной, как никакой другой человек будучи уже представлены.
Но я человек.
И все там, все там,
И все это было
И каждый человек
Они принадлежат мне.
Я присутствовал в Бога
Когда он пришел, чтобы быть.
Ничего не существует, не
Я также принимала участие.
Я прежде всего и
это имеет смысл только
меня.
Даже более, тень,
темнота и даже смерти.
Я вкусил смерти
Но
знать,
Доказано меня в могилу.
Доказано меня в могилу
Смерть встретил меня.
И мне больно.
В моем воскресении
Я стал духовным миром
Я изменил реальность
Я позвонил в существовании
Новый мир
Новое небо.
Новой Земле.
Тот, кто верит в меня
Получать питание
Чтобы преодолеть
А ваши глаза будут открыты
И ваше сердце станет
Будучи ребенком
Будучи ребенком



 
نام من عیسی مسیح است.
تا حدی که نام آن را نشان میدهد که من هستم.
من در آن متولد شد و نه فقط به عنوان نفر دیگر بودند به دنیا آمد.
اما من تمام است که بشر ، من و نماینده بشریت
قبل از من به عنوان دیگر هیچ انسان در حال حاضر نماینده خود کرد.
اما من انسان هستم.
و تمام وجود دارد ، همه وجود دارد ،
و تمام که شد
و هر انسان
آنها به من تعلق داشته باشند.
من به خدا حاضر بود
هنگامی که آن را به دست می آمد.
وجود دارد بدون هیچ چیز
من هم شرکت کرد.
من قبل از همه چیز دارم و
آن فقط باعث احساس
من.
حتی درد ، سایه ،
تاریکی و حتی مرگ شود.
من tasted مرگ
اما
دانید ،
اثبات مرگ من.
اثبات مرگ من
مرگ من ملاقات کرد.
و من صدمه می بینند.
در قیام عیسی از مردگان من
من در دنیایی روحانی شد
من تغییر واقعیت
من به نام وجود
دنیای جدید
آسمان جدید است.
زمین جدید است.
هر کس بر این باور در من
قدرت دریافت
برای غلبه بر
و چشمان خود را باز خواهد شد
و قلب شما تبدیل خواهد شد
به عنوان یک کودک
به عنوان یک کودک

Mon nom est Jésus.
Nom que partiellement elle révèle qui je suis.
Je ne suis pas né comme les autres hommes sont nés.
Mais je suis tout ce qui est humain, et je représente l'humanité
devant moi, comme aucun autre être humain déjà représentés.
Mais je suis homme.
Et tout là-bas, tout y est,
Et tout ce qui était
Et tous les êtres humains
Ils m'appartiennent.
J'étais présent à Dieu
Quand il vint à être.
Rien n'existe sans
J'ai aussi participé.
Je suis avant tout et
il n'a de sens que
moi.
Même la douleur, l'ombre,
l'obscurité et même la mort.
J'ai goûté la mort
Mais
savoir,
prouvé la mort de moi.
prouvé la mort de moi
La mort me remplies.
Et j'ai mal.
Dans ma résurrection
Je suis devenu le monde spirituel
J'ai changé la réalité
J'ai appelé l'existence
un monde nouveau
Un nouveau ciel.
Une nouvelle terre.
Celui qui croit en moi
Recevoir une force,
Pour surmonter
Et vos yeux s'ouvriront
Et votre cœur se
Comme un enfant
Comme un enfant

שמי הוא ישוע.
שם היא מגלה כי בחלקו מי אני.
לא נולדתי בדיוק כמו הגברים האחרים נולדו.
אבל אני כל כך הוא האדם, ואני מייצג את האנושות
לפני לי לא ייצג אדם אחר כבר.
אבל אני אדם.
ועל כל שם, כל שם,
וכל זה היה
וכל אדם
הם שייכים לי.
הייתי נוכח באלוהים
כשזה הגיע להיות.
שום דבר לא קיים בלי
אני גם השתתף.
אני לפני הכל
זה רק הגיוני
אני.
אפילו את הכאב, את הצל,
החשיכה ואפילו מוות.
טעמתי את המוות
אך
לדעת,
הוכיח את מותו של לי.
הוכיח את מותו של לי
המוות פגש אותי.
ולי כאב.
בתחיית המתים שלי
הפכתי את העולם הרוחני
שיניתי את המציאות
קראתי את קיומה
עולם חדש
שמים חדשים.
וארץ חדשה.
מי שמאמין לי
כוח קבלה
כדי להתגבר על
והעיניים שלך ייפתחו
והלב שלך יהפכו
בתור ילד
בתור ילד


 
My name is Jesus.
Name that partly it reveals who I am.
I was not born just as the other men were born.
But I am all that is human, and I represent humanity
before me as no other human being already represented.
But I am not a man.
And all there, all there,
And all that was
And every human
They belong to me.
I was present in God
When it came to be.
Nothing exists without
I also participated.
I am before everything and
it only makes sense
me.
Even the pain, the shadow,
the darkness and even death.
I tasted death
But
know,
proved the death of me.
proved the death of me
Death met me.
And I hurt.
In my resurrection
I became the spiritual world
I changed the reality
I called the existence
a new world
A new heaven.
A new earth.
Whoever believes in me
Receive power
To overcome
And your eyes will be opened
And your heart will become
As a child
As a child



terça-feira, 10 de fevereiro de 2009

Desejos



- Nós desejamos que todos sejam extremamente religiosos. Cheios de densas supertições.
Que vocês amem mais as denominações a que pertencem  que qualquer outra coisa. Lutem pelos Dogmas, e pela liturgia local, como se ela fosse a única que seja digna de ser realizada. Decorem imensos textos bíblicos para demonstrar como vocês conhecem o tal livro. Lembrem-se sempre, quem está participando continuamente dos serviços, só estes, devem ser levados em conta. Os que se afastarem da congregação, tratem como se fossem mortos. Aos pregadores, que se esmerem nas comparações, na retórica, no conteúdo teológico. Falem, falem, falem.  E pronto, nada mais, porque como todos sabem o pregador que prega bem já cumpriu seu papel. Não se envolvam, não cultivem amizades desnecessárias nas congregações. Mantenham-se afastados, quanto mais distante, melhor. Afinal, Sacerdotes já não estão cumprindo seu papel ao ministrarem a palavra? Nas prédicas, nos sermões,  no exercícicio das pregações! E defendam seus pontos de vista, sem se importar se estão entendendo ou não o que o outro está dizendo.., mais importante que pessoas é manter a Doutrina. Lamentem-se! Entristeçam-se! Lembrem dos sofrimentos da cruz, falem do sangue, das mutilações! Enalteçam a dor! Proibam! na dúvida, proibam, levantem muros, dificultem ao máximo a prática religiosa, porque, afinal de contas, o céu é para poucos... Usem e abusem dos cargos eclesiásticos, mostrem a a força das insígneas!  Não desenvolvam outros! Deixe que sempre as mesmas pessoas fiquem a frente das congregações, não dêem crédito aos novatos! Panelas! Sufoquem o crescimento desordenado, agarrem-se aos cargos, morram por eles! Porque dar lugar a um outro de "menor estatura" espiritual? JAMAIS se aproximem de outras denominações de outras comunidades cristãs. Lembre-se que só vocês, só seu grupo ESCOLHIDO E SEPARADO ANTES DO ÍNICIO DOS TEMPOS, é que foi separado e escolhido com a mais correta e sagrada  mensagem. Todos os outros estão em trevas. O Espírito Santo é EXCLUSIVIDADE de sua igreja.  São os meus doces e sinceros conselhos. Não confiem em ninguém.  Não se encoragem uns aos outros, pra que a desgraça do amanhã seja amenizada pela falta de expectativa de hoje. Não se apaixonem, e desconfiem de qualquer casal, porque se alguém se aproximar de seu conjugue com certeza estará mal intencionado. Não abrace, não seja afetuoso, não se contamine TOCANDO pessoas. Não mudem nunca, não usem nenhum recurso pedagógico renovado para ensinar o que vocês aprenderam. Desprezem aos dons espirituais, que como todo mundo lá do Arkhan sabe, é pura bobagem. Todo mundo sabe que os dons acabaram na igreja primitiva. 

De seu reverendo Coringa e sua companheira de ministério. Arlequim.


Welington José Ferreira 

Carta ao Senado

Enviado no natal de 2008

Certamente uma crise se aproxima, como tantas outras que ainda virão e como tantas outras
que já se foram. 
Lembro-me de uma narração do livro de Ester, no qual num tempo de crise
uma jovem é convocada a tomar uma posição que se refletiria na preservação de uma nação.
Quando ela sofre dúvidas sobre o que fazer, um conselheiro sábio a questiona:

- Quem sabe se não foi por essa causa, que você chegou a a alta posição que alcançastes?

Quem sabe, excelentíssimos Senadores, se não foi para tal, para a imprescindível preservação de uma nação,
Todos os vossos dias passados, toda a vossa história de vida pregressa, toda hora de estudo,
todo dia de vossa luta política, toda enfermidade vencida, todo projeto de lei aprovado,
todas vossas canções emudecidas, todos vossos amigo que já não estão mais presentes, todo 
lamento, cada despedida,  cada sonho, todo dia de densa escuridão.
Quem sabe se não foi para tão grande causa, para esta preservação de uma nação verde-amarela 
que vossas senhorias foram firmemente estabelecidos.
Eu não imagino o amanhã de nosso país.  Não sei se será tempo chuvoso,
O que haverá no fim do petróleo, se os polos de desenvolvimento sustentável ou
se a integração latino-americana se tornará realidade.
Eu não imagino se a justiça florescerá como jardins ou se nos perderemos no caminho.
Se seremos o celeiro do mundo, se alimentaremos nações, ou se 
nos perderemos nas entrelinhas da história.
Se triunfaremos como povo, se estabeleceremos atos maiores que nós mesmos.
Se narraremos as gerações vindouras a grandeza do que nos tornamos
Ou se lamentaremos as maravilhas que nossa vileza deixou perecer.
Pode ser que as feridas de nossas instituições possam cicatrizar
E que sejamos hoje sementes esplendidas para um novo país.

Seja o que for que nos tornemos, não o terá sido permitido sem que um Senado vigilante
o tenha defendido e inquietamente lutado pelos ideais
pela justiça, pela equidade, pela legitimidade,
sem os quais não nos restará nenhum amanhã.

Feliz Natal, Excelentíssimos  Senadores.
Desejo a todos um vitorioso Ano Novo.
Welington José Ferreira

Jagunçada

Jagunçada.


Uma história de cão entre um homem e uma mulher.



Cantador de causos, o contador, de uma perna e de uma braço e de um olho e de uma orelha só, chegou de novo na cidade, e a multidão se acomodou. Era a última vez que contaria a história que por cinquenta anos contou, como jura feita a muito, a quem não se sabe, a quem não se viu.

Trazia sempre aos lombos, um alforge, e uma sacola com alguma coisa que só mostraria quando chegasse a hora.

A cidade em rebuliço esperaria o entardecer, porque no dia ditoso, quando contasse a Jagunçada, pela derradeira vez, o que levara consigo por quase cinquenta anos, finalmente, iria mostrar.

Como falava o cantador. As crianças em polvorosa, pois todos queriam ouvir, outra vez a jagunçada, outra feita, outro senão, a interminável história e sua canção.


E assim que entardeceu, começou, o contador a contar seu causo:


  • Cabra-ruim-de-más-bicho-muito-ruim-mermo. Era ele assim conhecido. Cabrunco odioso de mal. Jagunço afamado da região que compreende a pequena faixa entre Ponta-porã e Juazeiro do Norte. Cabra jurado de morte por Cabra-ruim era um homê marcado pra morrer. Qual como cabra defunto seria tido, aos olhos da populaça trêmula, que a muito adentrava as noite pra sepultar os matado, daquele cabra matador.


  • Longe de mim, criatura abestada, teu distino tá traçado, e num se aproxegue naum, que na várzea da artilharia pode sobrá tiro pra mim.


Assim excomungavam aos mortifundos, quando os coronéis avisavam que Cabra-ruim-de-más-bicho-muito-ruim-mermo estava pra chegar.


Fizeram-lhe, num dia nebuloso cujas sombras já se esvaem, emboscada ferina com os mais perversos matadores que o dinheiro podia comprar. Vinte e três homens, cada um com trinta quilo de balas, com mais facão na cinta que unha de jaburu nas mão, se atiraram incólumes pelas costas do caramunhão. Triste sina dos matuto que findaram entre as bala do marvado matador.

No mermo dia em que Cabra-ruim-de-más, chorou uma lágrima tormentosa pelo olho que ainda tinha, compungido o coração.

Pois nunca, em toda sua andança desgraçada como exímio matador, matara tão pouca gente de uma só feita.


  • Somente vinte e três...


Corpo que nem uma peneira, Cabra-ruim tava acostumado, mas lhe incomodava a média.

  • Homem macho que nem eu num mata menos de trinta. Como é que foi acontecer? Tô perdendo a postura, tô desvalorizado? Vinte e três! Só de raiva vou passar a cidadela no facão, pra essa gente miserável respeitar quem é o cão.


E assim seguia aquela praga, jagunço de renome, eta cabra ruim sim sinhô.


O afamado Coronel Desarraiga da Lima e Silva Teodoro, Capitão, azucrinado pelos feitos desta peste mortifúndia, arresolveu convocar o jagunço derradeiro, NA VERDADE, UMA MUIÉ. Amorosa da Caatinga linda. Mais conhecida como Diga-adeus-que-vais-morrer, de quem contava a lenda, seria o quinta cavaleira do apocalipse em fase de treinamento, convocada para tomar 'sastifação' com o recalcitrante marfegaçanho. Aquela muié sofrida, que perdera sete irmãos, pai, mãe e cabritos, nas fomes das secas incontáveis nas tormentas do sertão, se tornara numa lenda tamanha que fazia Maria-bonita parecê uma doce donzela sonhadora. Trocentos homens jaziam sem cabeça pelas estradas sertanejas, frutos da pontaria daquela órfã impressionante.


O dia inda tava claro quando a jagunça Diga-adeus entrou na cidade sofrida de Nazaré das Farinha. Uma romaria de matuto rumou para qualquer lugar, entre o ontem e o amanhã, porque sabe-se lá que iria acontecer quando os dois cabra da peste, arresolvessem se bulir.

Esticando o queixo duro, com voz de paca atarracada grunhiu Diga-Adeus:

  • Pra onde ocês vão, raça de matuto fugidor?

  • Nóis vamo pra duas légua depois que o cafundó-dos-Judas termina! Gritou a populaça.

E assim se ia a aterrorizada multidão.


Cabra-ruim se encontrou com Diga-adeus as duas da tarde em frente do cemitério. Cabra-ruim com uma pá nas mão, sorriu amostrando os dois dentes escurecidos que ainda tinha e gritou:


  • Vem cá minha nega, já preparei procê um lugar, bicha safada, pra tu num tê que se aperreá com aluguel. Nunca mais. Tá querendo tu segurá o toro brabo com as mão? Vô tê cortar aos poco, pra tu aprendê a respeitar os cabra-macho, muié despeitada!

  • Cumpadre Cabra-ruim, homem perverso de dá dó, aprumado na arte do exterminío, tá na hora, mormente chega pra qualquer um de nós, de intendê que as pessoa são que nem os indivíduo. Que bobagem é espirrar na farofa. E que boi lerdo bebe água suja.


Cabra-ruim-de-más-bicho-muito-ruim-mermo nem se coçou. Um tédio só. Eta cabra faladora, essa tal de Diga-Adeus.

  • Tá querendo me matá falando, muié?

Mãos crispadas de Diga-adeus sobre as empunhaduras dos facões de cortar cana:


  • Ao assustado a própria sombra assusta? Burro velho não toma freio? Cabra-ruim-de-más; cachorro comedor de ovelha, só matando. Diz então, cabrunco, como é que tu qué morrê.


Cabra-ruim responde.


  • Cavalo bom e muié valente, a gente só conhece na chegada.


Cabra-ruim cospe no chão. Se é que aquilo que saiu e sua boca podia ser chamado e cuspe. Levanta a aba da chapeleira de couro de toro castrado a unha por ele mesmo, dá uma rabanada de olho, aquele tipo de olhar enviezado que quando não aleija, mata, três fungadas e um buchicho e então fala:

  • Tanto acoar em sombra de corvo, pelo menos me diverte um pouco. Mas tu sabe que te dou valor. Por isso tu vais morrer aos pouco, coisas que não faço com todo mundo, só com os privilegiado. Agora vamo nóis cerra a noite, cabrita marcada pra morrer.


A tiranbança desenfreiada começou ali, os dois pulando mais que corisco em dia de temporal.


E assim foi.

No mais porreta de todos os enfrentamentos.


Incendiaram Nazaré das Farinha. Entraram por dentro de três plantação de cana, e num deixaram uma mardita em pé. Os gados desperado daquele confronto intenso, correram pro lugar errado e se atinaram em meio aos matadores. A boiada foi destroçada pela força dos peleantes. Era rebenque subindo, talagaço feito chuva e nada parava o gasqueaço daquele intenso entrevero.

E assim foi por quase três dias.

Cabra-ruim já tava todo cortado. A calça de couro de cabra de Diga-Adeus mostrava sua perna torneada, arranhada e suada, mas de todo modo a perna de uma muié.

Pela primeira vez em toda sua vida, Cabra-ruim vacilou. Diga-Adeus arfava quase sem se mantê de pé. A mão tremia enquanto seu olhar se fixava na fronte do caramunhão. E pela primeira vez em toda sua lida, Diga- Adeus se admirou de um homem.

Mas, partiram resolutos um pra dentro do outro, que aquilo num era hora de namorá.


Eta confronto arretado das terras queimadas, onde o sol inclemente decidiu jamais se afastar!

E assim foi. Por mais dois dias.

E quem sabe quando essa peleja intensa, arresolvia terminá?


Inté que chegaram as tropas di coroné Serapião, amigo de Rufoespino, parente

do afamado Coronel Desarraiga da Lima e Silva Teodoro Capitão. Trezentos jagunços treinados pelas mãos do Capitão.

Os cabra cercaram a cidade armados até a unha dos dedos dos pés.


Vixe Maria! Como falava o contador! Então cansado, o cantador de causos, o contador, de uma perna e de uma braço e de um olho e de uma orelha só, por ordem da promessa feita, dispois ocês hão de saber a quem, arresolveu terminá.


  • Pra encurtar essa lida, desta história renhida, como fiz, foi minha sina, agora livre vou-me embora, acabou-se, ai vou eu, pois na vertente dos dias, no cochicho da noite e quando fina a promessa, me vou.


Lentamente o contador abriu a bolsa, para o espanto da multidão, e delas cairam dois cranios, feitos pedaços, no chão.

Os cranios foram rolando batendo entre as pedras dos paralelepípedos caiados de branco, até pararem.

E um menino de sopetão, tomado de grande assombro, gritou e fêz a pergunta, do meio da confusão:

  • Porventura são esses os cranios de Cabra-ruim e da desgraçada Diga-Adeus? Os infame matador, naquele mês de horror, viraram enfim vatapá?

A multidão acompanhou em coro a pergunta:

  • Responde, cantador!


O contador entortou a boca, balançou a cabeça, deu um silvo e sua mão declinou.

Então quase que rindo, não se conteve e bradou:


  • Esses são os corenéis Serapião e Capitão, dos trezentos condenado, só eu sobrei, ninguém mais não... Cabra-ruim e Diga-Adeus fizeram o que nóis nunca iria esperar. Quando se viram cercados, decidiram por de lado as desavenças e entraram por dentro da Caatinga, os mardito. Nóis procuramos por três semanas. Nos embrenhando pela ata virgem, perdemos, inda naquela semana, mais de trinta cabruncos. Foi quando com armas tiradas Padre Cícero sabe da onde, Aquela muié bandida e aquele capanga de nome, arresolveram nos matá. Me deixaram viver pra que eu contasse a história, levando eles inté a fazenda de Serapião e Capitão.

A multidão ovacionava a história renhida, daquela luta marfadada, daquela jagunçada terrível.

E de novo o menino curioso sem se conter, sem segurá, questionou:

E que fim levou, os jagunços, desta história que finda?

O contador parou. Se virou. Olhou sério a multidão, agora silenciada. Os olhos atentos, o murmúrio do vento. Então falou:


  • Intão, mormente finda a lida, a sina... juntaram os trapo, as ferida e a dor,

e si uniram pelos sagrados votos do matrimônio...




E sem se virar de novo,

o cantador...

...disse adeus.














Autor:

Welington José Ferreira


quinta-feira, 5 de fevereiro de 2009

Egoísmo

 Egoísmo

 

Num olha assim pra esse pudim,

Que é meu.

Só meu.

O teu tem tempo que acabou

Findou.

Esse teu olho num comove

Esse meu duro coração

Esse pudim que agora vês

Que é meu

Só meu.

Em breve será só lembrança

Visual

Pra ti.

Gustativa

Pra mim.

Só mim.

 

Welington José Ferreira

Até que se aquietem os vales


Até que se aquietem os vales 

 

E foram histórias tristes,
Dentre fábulas fantásticas
E desceram montes apáticos
Vestidos de couraças gélidas
E criam naquelas bandeiras
Na verdade, estandartes levantados
Por jovens de mãos fortes
Acostumados com o gemido das batalhas
E foram torrões acesos
Brilhando com suas espadas
Por entre as vielas Curdas
Por entre os pastos queimados
Sangrando homens treinados
Gritavam cavalos baios
Brindavam espadas raras
Cresciam pavores plenos
Marechais e comandantes
Seus soldados agora errantes
Entre as pilhas dos caídos
Entre os gritos dos vencidos
Avante! Cavalos baios
Por esses morros infames
Lutar na guerra sem nome
Até não poder correr mais livremente
Até que só sobre a fome.
Caiam desfraldadas bandeiras
Caiam pendões entre mãos trêmulas
Até que se aquietem os vales
Até que se aquietem os vales


Welington José Ferreira 

Acorda!

Acorda!

 Acorda menina bonita
Já chegou a hora
De trabalhar
Desperta do sono
Manhosa menina
É tempo
De acordar
Desperta menina sonhando
Amanheceu
Mais uma vez
Desperta e sai das cobertas
Não segura a cama
Já despertou
Acorda que  o pão
Tá esfriando
E se não acordar
Vai se atrasar
Faz força!
Que os olhos se abrem
E então o outro passo
É levantar!
Desperta
Sua dorminhoca
Que o sol chama
pra despertar...


Welington José Ferreira

Um amigo

Como as águias que habitam as refinarias

Que são suas verdadeiras donas, sob cujo olhar atento trabalham

Seus súditos, inumeráveis criaturas humanas

São como a chuva que cai entre as nuvens

Como os raios que relampejam

Nas profundas águas do mar

Como peixes voadores

Sobre cujas asas elefantes dormitam

Em paz

São como mares em chamas

Por onde golfinhos de gelo

Mergulham sem derreter

São como as luzes que fazem

mesmo abismos tremerem

Ou o tempo inteiro voltar

Ao instante anterior

São como as vozes das folhas

De Tamargueiras milenares

Ou como a força espantosa

De gotas que são tão grandes

Quando dois arranha-céus

 

De tudo isso se entende

Que tal como imaginado

Noutra hora qualquer

 

Amigos são como um manto

Desses que envolvem os sonhos

Que nos lembramos as vezes

 

no instante de acordar


Welington José Ferreira